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भारतीयता के गौरव की अनुभूति कराता लोकमंथन


  

 भारत में विचार विनिमय की अपनी एक समृद्ध संस्कृति रही है. ऋषि ,मुनि तथा विचारक एक जगह एकत्रित होकर समाज की समस्याओं तथा उसके निवारण पर विमर्श करते थे. धीरे –धीरे यह परम्परा सामाजिक उत्थान न होकर राजनीतिक उत्थान का रास्ता चुन लिया अर्थात हर विमर्श राजनीतिक दृष्टि से आयोजित होने लगे. जिसका सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय समाज को हुआ है, भारतीय संस्कृति का हुआ है. आज के दौर में समाज देश के प्रबुद्ध वर्ग से यह उम्मीद करता है कि कोई ऐसा आयोजन हो जिसमें कई तरह के विचार आएं जिसमें समाज की चर्चा हो और राजनीति से परे हो. विगत दिनों रांची में आयोजित चार दिवसीय लोकमंथन का आयोजन हुआ. यह आयोजन भारतीय चिंतन की दृष्टि से अपनेआप में एक अनूठा विमर्श था. ‘भारत बोध’:जन –गण-मन विषय पर के आलोक में आयोजित इस वैचारिक महाकुंभ में देशभर से बड़ी संख्या में राष्ट्र सर्वोपरी की भावना रखने वाले विचारकों,लेखकों, लोककलाकारों का जुटान हुआ. गौरतलब है कि 2016 में भोपाल में लोकमंथन का पहला आयोजन हुआ था. जिसमें देश –विदेश से विचारकों एवं कर्मशीलों ने भाग लिया था. भोपाल के आयोजन की चर्चा राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों ने की. आज की परिस्थिति में ऐसे वैचारिक आयोजन शायद ही होते हैं जिसमें देश, काल और परिस्थिति के मद्देनजर ऐसा विमर्श हो जो राष्ट्र की परम्पराओं को विकसित करने का कार्य करे. लोकमंथन में न केवल भारतीयता का दर्शन होता है अपितु राष्ट्र की रचनात्मकता को भी बढ़ावा देने का बल प्राप्त होता है. भारतीय विचारों से ओतप्रोत इस विमर्श में अर्थावलोकन, व्यवस्थावलोकन, समाजवलोकन, विश्वावलोकन, तथा आत्मअवलोकन  चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु रहे. उल्लेखनीय है कि इन्ही बिंदुओं पर आज हमारा समाज आगे बढ़ रहा है. किन्तु यह दुर्भाग्यवश है कि समाज को संचालित करने वाले इन आयामों में भारतीयता का पतन निरंतर होता जा रहा है. वर्तमान समय में अगर हम भारत में भारतीयता की अवधारणा पर चर्चा करें, तो उसका परिणाम यही आता है कि भारत की संस्कृति, सभ्यता पर पश्चमिकरण के बढ़ते प्रभावों के कारण, भारत बोध की अवधारणा को गहरा आघात पहुँचा है. इस चोट का इलाज क्या है. तथा किन कारणों से भारतीय जनमानस से भारतीयता का भाव लुप्त होता चला जा रहा है ? यह दो प्रश्न उन सभी लोगों को परेशान किए हुए हैं जो भारतीय ज्ञान परंपरा के वाहक है. बौद्धिकता के दृष्टि से देखे तो भारत का वैचारिक खेमा मुख्य रूप से दो भागों में बंटा हुआ है. एक वह खेमा है जो भारतीय चिंतन परंपरा को मानता है. भारत की प्राचीन विरासतों पर गौरव करता है तथा अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति तक यह चिर पुरातन संस्कृति के गौरव की अनुभूति कराने के लिए प्रयासरत है. दूसरी तरफ़ वह लोग हैं भारतीयता के मूल संस्कृति पर लंबे अरसे से लगातार कुठाराघात करने में लगे हुए हैं. यह बौद्धिक तबका भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं परमपराओं को न केवल खारिज़ करते आए हैं बल्कि भारतीयता की अवधारणा से घृणा का भाव रखते हैं. भारतीय परम्परा के जानकर आचार्य डेविड फ्राली ने विश्वावलोकन सत्र में बोलते हुए भी इस बात की पुष्टि  कि की वामपंथी विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने भारत की गलत छवि विश्व में पेश की तथा हिन्दूओं के बारे में गलत जानकारी दी. जिससे भारत को नुकसान उठाना पड़ा. भारत की चिंतन परम्परा की चर्चा  हुए डेविड फ्राली ने कहा कि भारतीय चिंतन को आत्मसात करने के लिए विश्व उत्सुक है. लेकिन भारतीय इस दिशा में उदासीन है, असल में भारत विश्व सभ्यता की मातृभूमि है. उल्लेखनीय है कि भारतीय सभ्यता का लोहा विश्व के सभी विचारक मानते हैं किन्तु क्या हम वाकई हम अपनी चिंतन पद्दति को लेकर उदासीन है ? यह सवाल हर भारतीय को खुद से जरूर पूछना चाहिए. डेविड की इस बात से सहमत अथवा असहमत होने के बहुत सारे तर्क हो सकते हैं किन्तु उनकी बात को खारिज़ नहीं किया जा सकता बल्कि आत्मअवलोकन किया जा सकता है कि आखिर क्या कारण है कि हम अपनी चिंतन परम्परा को विश्व के सभी देशों से परिचित नहीं करा सके ? बल्कि भारतीय ही पश्चिमी सभ्यताओं के पोषक बन गए. इसी तरह प्रत्येक व्यवस्थाओं  में भारत बोध को कैसे पुनर्स्थापित किया जाए इस पर सभी वक्ताओं ने अपनी बात रखी. व्यवस्थावलोकन पर बोलते हुए पद्मश्री अशोक भगत ने बहुत जरूरी बात कही उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर हम सोचते हैं कि सब कुछ सरकार कर देगी तो यह संभव नहीं है .लोकतंत्र में हर व्यक्ति सरकार है और सरकार क्या नहीं कर सकती इसकी सूचि बननी चाहिए और उन कामों को समाज को सौंप  देना चाहिए. अशोक भगत की यह बात विचारणीय है. क्योंकि उन्होंने आदिवासीयों ,वनवासियों के जीवन के उद्धार के लिए खुद एक व्यवस्था की नीवं रखी और उसमें सफल भी हुए. लेकिन क्या समाज इसके लिए आगे आएगा ? व्यवस्था में फैली खामियों को दूर करने के लिए समाज  का योगदान आवश्यक है. अगर समाज जो अपने अधिकारों के साथ –साथ अपने कर्तव्यों का बोध भी हो जाए तो व्यवस्था में फैली तमाम प्रकार की विकृतियों से निजात मिल सकती है. चार दिन तक चले इस प्रवाहमान मंथन से कई बातें सामने आई जिसके मद्देनजर यह समझा जा सकता है कि यह आयोजन को अनूठा क्यों है. इस आयोजन में हाशिए पर खड़ी भारतीय लोक संस्कृति की जिस ढंग से ब्रांडिग की गई वह अभूतपूर्व है. लगभग समूचे भारत के नृत्य, नाटक, जनजातीय परम्परा, आदिवासियों के पर्व, सनातन पर्व इत्यादि को भी सबसे परिचित करवाया गया. इस लोकमंथन के द्वारा प्रज्ञा प्रवाह ने केवल देश भर से लेखकों, चिंतको, विचारकों, लोककलाकारों को बुलाकर वैचारिक महाकुंभ का आयोजन कर रहा है बल्कि भारतीय कला ,संस्कृति और परम्पराओं के संवर्धन की दिशा में भी सार्थक प्रयास कर रहा. लोकमंथन जैसे कार्यक्रमों से राष्ट्रीय विचारों की रचनात्मकता के विविध आयामों का मार्ग प्रशस्त होता है. तमाम प्रकार के सृजनात्मक क्रियाकलापों के उपरांत ही हमारे समाज में एक ऐसी भावना का विकास होता है जो भारत के संस्कारों को अंगीकृत करने की दिशा में भागीरथ प्रयास के रूप में देखा जाता है. अगर हम एक वृहद दृष्टिकोण से देखें तो यह आयोजन भारतीय विचारों के सृजनात्मकता का अनुपम उदारहण है.

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