लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून
की तारीख याद रखनी चाहिए. क्योंकि यह वह दिन है जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंदी
बना लिया गया था. आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है, जिसके दाग से
कांग्रेस कभी मुक्त नहीं हो सकती. इंदिरा गांधी ने समूचे देश को जेल खाने में
तब्दील कर दिया था. लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया
जा रहा था, सरकारी तंत्र पूरी तरह राजा के इशारे पर काम कर रहा था. जब राजा शब्द
का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो स्वभाविक है कि इंदिरा गांधी पूरी तरह लोकतंत्र को राजतंत्र
के चाबुक से ही संचालित कर रही थीं. गौरतलब है कि इंदिरा गांधी किसी भी तरीके से सत्ता
में बने रहना चाहती थी. इसके लिए वह कोई कीमत अदा करने को तैयार थी किन्तु इसके
लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर इतना बड़ा आघात होने वाला है शायद इसकी कल्पना किसी ने नहीं
की थी. देश में इंदिरा गाँधी की नीतियों
के खिलाफ भारी जनाक्रोश था और जयप्रकाश नारायण जनता की आवाज बन चुके थे. जैसे-जैसे
आंदोलन बढ़ रहा था इंदिरा सरकार के उपर खतरे के बादल मंडराने लगे थे. हर रोज हो रहे
प्रदर्शन सत्ता को खुली चुनौती दे रहे थे, कांग्रेस के खिलाफ विरोध की उठी हवा बहुत
जल्द आंधी में तब्दील हो चुकी थी. इसी बीच इलाहाबाद न्यायालय का आया फैसला इंदिरा
गाँधी और कांग्रेस के लिए शामत बनकर आया. इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा को चुनाव धांधली
के आरोप में अयोग्य करार दे दिया. सुप्रीमकोर्ट से भी कांग्रेस को बहुत राहत नहीं
मिली. कांग्रेस के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई की स्थिति थी. इसका एक
मात्र हल था इंदिरा गांधी को त्याग पत्र दे कर अदालत और जनभावनाओं का सम्मान करना.
दुर्भाग्य से सिद्धार्थ शंकर रे और संजय गांधी की सलाह पर इंदिरा ने तीसरा राश्ता
चुना जो तानशाही का प्रतीक बनकर इतिहास में दर्ज हो गया. एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस
ने सुप्रीमकोर्ट हो अथवा इलाहबाद हाईकोर्ट दोनों जजों के निर्णय को प्रभावित करने
की पूरी कोशिश की, सीधे शब्दों में कहें
तो जजों को झुकाने, खरीदने के सभी पैतरों
को आजमाया गया. आपातकाल का दंश झेलने वाले देश के वरिष्ठ पत्रकार रहे दिवंगत
कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा एक जिन्दगी काफी नहीं में इसका विस्तृत जिक्र किया
है. श्री नैयर लिखते हैं कि “इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कई महीने बाद मैं
जस्टिस सिन्हा से भी इलाहाबाद में उनके घर पर मिला था. उन्होंने मुझे बताया था कि एक
कांग्रेस सांसद ने इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसला सुनाने के लिए उन्हें रिश्वत
देने की कोशिश की थी.” श्री नैयर इसका विस्तृत जिक्र करतें हैं, जिसमें जज को
प्रलोभन के साथ, साधू-संतो का इस्तेमाल किया गया क्योंकि जस्टिस सिन्हा आध्यात्मिक
प्रवृति के थे. यह सब पैतरें इस बात के स्पष्ट संकेत देते है कि इंदिरा और कांग्रेस इस दंभ में थे कि
लोकतंत्र उनके कब्जे में है परन्तु शायद वह भूल गए थे कि ‘तंत्र’ उनके कब्जे में हो
सकता है ‘लोक’ उनके कुशासन के खिलाफ पहले
ही बिगुल फूंक चुका थे. बहरहाल, देश के सभी बड़े नेता जेल की कोठरी में बंद थे. कुछ
नेता भूमिगत होकर आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे. लोकतंत्र के सभी
स्तंभों खासकर मीडिया पर पूरी तरह संजय
गांधी का पहरा था, विद्या चरण शुक्ल जैसे सूचना प्रसारण मंत्री सभी माध्यमों को झुकने
को मजबूर कर दिया था. देश इस संकट से बाहर कब आएगा, लोकतंत्र का सूर्य कब उदय होगा
ऐसे सवाल यक्ष प्रश्न बनकर रह गए थे. फिर यकायक 21 मार्च 1977 को लोकतंत्र की
शक्ति के आगे इंदिरा और कांग्रेस को झुकना पड़ा, किन्तु इन 21 महीनों में निरंकुशता की सारी सीमाओं को लाँघ दिया गया था.
लाखों लोग जेलों में बंद रहे. निर्ममता और यातनाओं को झलते हुए कई लोग काल के गाम
में समा गए. यह भारत के लोकतंत्र पर सबसे बड़ा आघात था एक ऐसा आघात, जो हमेशा
हमारे लोकतंत्र की सुन्दरता को चिढ़ाता रहेगा.आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस
बुरी तरह से पराजित हुई यहाँ तक की इंदिरा गांधी भी चुनाव हार गईं थी. जनता ने देश
के सत्ताधीशों को स्पष्ट सन्देश किया कि अराजकता और अधिनायकवाद को वह सहन करने
वाली नहीं हैं. लोकतंत्र को पुनरस्थापित करने की लड़ाई सबने अपने स्तर लड़ी किन्तु इंदिरा
गांधी के इस अनैतिक, असंवैधानिक कदम को वामपंथी दल एवं उस विचार के बुद्दिजीवियों ने
क्रांतिकारी कदम बताकर इसका समर्थन किया था. आज उसी जमात के लोग गत आठ वर्षों से
अघोषित आपातकाल का अनावश्यक झंडा बुलंद कर रहे हैं. यह बेहद हास्यास्पद है जब देश की
सभी संस्थाएं स्वतंत्रता के साथ काम कर रही हैं. तब इस कपोल कल्पना का मकसद क्या
है ? इसके पीछे पूर्वाग्रह के बाद कोई ठोस कारण भी दिखाई नहीं पड़ता. बल्कि उनके
ऐसे विचार अकसर उनकी ही फज़ीहत करातें हैं. नरेंद्र मोदी सरकार तीखी आलोचनाओं को भी
सहन कर जाती है, नागरिकता संशोधन कानून, कृषि कानून को लेकर देशभर में बड़ा आन्दोलन
हुआ सरकार ने उनकी बात भी सुनी उपजे भ्रम को दूर करने की दिशा में प्रयास भी किया.
ताज़ा मामला अग्निवीर योजना को लेकर है देशभर में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए किन्तु
सरकार ने इस योजना को लेकर फैलाए जा रहे भ्रम को तुरंत दूर किया. आज हर कोई खुले
मन से सरकार अथवा किसी दल की आलोचना करने को स्वतंत्र है, संयोग से ऐसा नैरेटिव
गढ़ने वाले लोग ही किसी दल अथवा सरकार की बंद आखों से आलोचना करते हुए अघोषित आपातकाल
की बात करते हैं तो यह स्थिति बेहद
हास्यास्पद होती है. भारत का लोकतंत्र समयानुसार परिपक्व होता जा रहा है,
देश के युवा संविधान की महत्ता को जानने लगे हैं अपने अधिकारों व कर्तव्यों के
प्रति सजग हो रहे हैं. सैकड़ो उदाहरण आज हमारे सामने मौजूद है जब एक विशेष तथाकथित
बौद्धिक वर्ग द्वारा आपातकाल जैसा हौवा खड़े करने की कोशिश की जाती है जिसका मकसद
केवल वर्तमान सरकार को बदमान करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. ऐसे लोगों को समझना
चाहिए कि भारत के लोकतंत्र पर आघात पहुंचना अब बेहद कठिन है, ऐसे घातक कदमों का क्या
दुष्परिणाम होता है इसको हमारा देश व आपातकाल थोपने वाली कांग्रेस भी अच्छे से समझ
गई है. अब कोई शासक ऐसे कदम उठाने की सोच भी नहीं सकता. फिलहाल तो वह विचारधारा
शासन पर काबिज है जो आपातकाल के लिए संघर्ष किया. प्रधानमंत्री स्वंय आपातकाल के आंदोलन
में प्रमुख भूमिका में थे.
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