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Showing posts from 2018

अधूरा न्याय लेकिन जगी उम्मीद

1984 के सिख नरसंहार के इंसाफ की कड़ी में 17 दिसंबर का दिन बेहद महत्वपूर्ण माना जायेगा.सोमवार को दिल्ली हाईकोर्ट ने गत दिनों सिख दंगे मामले में सुनवाई करते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद सज्जन कुमार को दोषी बताते हुए उम्रकैद की सज़ा सुनाई है. गौरतलब है कि इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात् दिल्ली सहित देश भर में सिखों पर भारी जुल्म किया गया था. इस नरसंहार के पीछे इंदिरा गाँधी की हत्या का बदला लेने की भड़काई हुई भावना थी. जो इस तरह भड़की कि हजारों सिखों की बलि लिए बगैर शांत नहीं हुई.यह घटना आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे क्रूरतम घटनाओं में सबसे प्रमुख है. सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग किस तरह नियम ,कानून का बेजा इस्तेमाल कर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग   कर सकते हैं सिख विरोधी दंगा इसका सबसे बड़ा प्रमाण है. आज 34 साल बाद भी अगर सिख समुदाय को अब जाकर इंसाफ की राह आसान हो रही है तो, यह समझना आवश्यक है कि सिखों के न्याय के अधिकार में बांधा बनने वाली शक्तियाँ कितनी मजबूत थी. बहरहाल ,इस भीषण दंगे में कांग्रेस के बड़े नेताओं का नाम सामने आया, लेकिन राजनीतिक हथकंडों के सहारे वो बच निकले. इ

जनकल्याण के प्रयासों का सम्मान

       जब किसी देश के मुखिया को प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा जाता है तो, यह उस देश के लिए हर्ष का विषय होता है. गौरतलब है कि गत दिनों ‘सियोल शांति पुरस्कार 2018’ के लिए नरेंद्र मोदी को चुना गया है. यह सम्मान नरेंद्र मोदी को वैश्विक आर्थिक प्रगति, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और भारत के लोगों के मानवीय विकास को तेज़ करने की प्रतिबद्धता तथा सामाजिक एकीकरण के जरिये लोकतंत्र के विकास के लिए प्रदान किया जा रहा है. सियोल पीस प्राइज कल्चरल फाउंडेशन की तरफ़ से आए आधिकारिक बयान में यह भी कहा गया है कि सामाजिक विषमताओं की खाई को पाटने में ‘मोदीनोमिक्स’ के महत्व को संस्था स्वीकार करती है. संस्था का यह बयान इस बात की तरफ़ इशरा करता है कि नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में जो जन कल्याण की योजनाएं प्रारम्भ की हैं वह फाइलों में सिमटने की बजाय जमीन पर कारगर साबित हो रही है.जिसकी मुनादी विश्व के तमाम संगठनों को सुनाई दे रही है. जाहिर है कि सियोल शांति पुरस्कार प्रत्येक दो साल के अंतराल पर ऐसे व्यक्तियों को दिया जाता है, जो मानवता के कल्याण के लिए प्रयासरत हो तथा विश्व शांति के लिए अपना योगदान दिया

जन्मदिन विशेष – अमित शाह और भाजपा का स्वर्णिम काल

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपने जीवन काल के 54 साल पूरे कर 55 वें बसंत में प्रवेश कर रहे हैं. यह उनके जीवन काल का सबसे अहम पड़ाव है. क्योंकि इसी वर्ष इनको पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव फिर आगामी आम चुनाव भाजपा उनके नेतृत्व में लड़ने जा रही है. जाहिर तौर पर अमित शाह की यह इच्छा होगी कि जब वह अपना 55वां साल पूरा कर रहे होगें तब भाजपा का स्वर्णिम काल चल रहा हो जिसकी कल्पना उन्होंने की है. यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा वर्तमान समय में अपने इतिहास के सबसे स्वर्णिम दौर से गुजर रही है. किन्तु आज भी अमित शाह संतोषप्रद की स्थिति में नही हैं बल्कि अत्याधिक ऊर्जा के साथ संगठन को विस्तार देने में लगी हुए हैं. सवाल उठता है कि आखिर अमित शाह के नजरिये से भाजपा का स्वर्णिम काल कौन सा होगा ? इसको समझने के लिए हमें दक्षिण की तरफ़ झांकना होगा. जहाँ बीजेपी भाजपा उत्तर भारत के बरक्स मजबूत दिखाई नहीं देती लेकिन पूर्वोत्तर के त्रिपुरा ,असम, नगालैंड जैसे राज्यों में अपनी रणनीति के दम पर भाजपा को स्थापित करने वाले शाह का अगला मिशन दक्षिण को फतह करना है. जिसके लिए वह दिनोंरात

हादसों के कारण और लापरवाही के परिणाम !

जब समूचा देश दशहरा के अवसर पर रावण का पुतला दहन कर असत्य पर सत्य की विजय के जश्न में डूबा हुआ था, उसी वक्त अमृतसर से एक ऐसी दुखद खबर आई जिससे पूरा देश हतप्रद रह गया. किसी को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि ऐसी अप्रिय घटना होने जा रही है जिससे यह जश्न क्षण भर में ही मातम में तब्दील हो जाएगा. पंजाब के अमृतसर के करीब जोड़ा रेलवे फाटक के पास रावण दहन का कार्यक्रम चल रहा था, वहाँ उपस्थित लोग दशहरे के इस जश्न को अपने मोबाईल में कैद कर रहे थे, तभी अचानक आग में लिपटा दशानन का पुतला गिर गया और लोग अपने बचाव में इधर–उधर भागने लगे और इस बचाव से भगदड़ की स्थिति पैदा हो गई. उसी वक्त जोड़ा फ़ाटक से गुजरी लोकल ट्रेन की चपेट में आने से अभी तक 62 लोग असमय काल की गाल में समा गए, वहीँ 150 से अधिक लोग घायल हैं. मौत के यह आंकड़े बढ़ भी सकते हैं. इस दुखद घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. जैसे ही इस हादसे की बात सामने आई, केंद्र सरकार ने राहत और बचाव के लिए पूरा अमला लगा दिया. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और देश, विदेश के कई नेताओं ने इस घटना पर शोक प्रकट किया है. इन सबके बीच कई सवाल सबके मन में कौंध रहे हैं कि

भारतीयता के गौरव की अनुभूति कराता लोकमंथन

     भारत में विचार विनिमय की अपनी एक समृद्ध संस्कृति रही है. ऋषि ,मुनि तथा विचारक एक जगह एकत्रित होकर समाज की समस्याओं तथा उसके निवारण पर विमर्श करते थे. धीरे –धीरे यह परम्परा सामाजिक उत्थान न होकर राजनीतिक उत्थान का रास्ता चुन लिया अर्थात हर विमर्श राजनीतिक दृष्टि से आयोजित होने लगे. जिसका सबसे ज्यादा नुकसान भारतीय समाज को हुआ है, भारतीय संस्कृति का हुआ है. आज के दौर में समाज देश के प्रबुद्ध वर्ग से यह उम्मीद करता है कि कोई ऐसा आयोजन हो जिसमें कई तरह के विचार आएं जिसमें समाज की चर्चा हो और राजनीति से परे हो. विगत दिनों रांची में आयोजित चार दिवसीय लोकमंथन का आयोजन हुआ. यह आयोजन भारतीय चिंतन की दृष्टि से अपनेआप में एक अनूठा विमर्श था. ‘भारत बोध’:जन –गण-मन विषय पर के आलोक में आयोजित इस वैचारिक महाकुंभ में देशभर से बड़ी संख्या में राष्ट्र सर्वोपरी की भावना रखने वाले विचारकों,लेखकों, लोककलाकारों का जुटान हुआ. गौरतलब है कि 2016 में भोपाल में लोकमंथन का पहला आयोजन हुआ था. जिसमें देश –विदेश से विचारकों एवं कर्मशीलों ने भाग लिया था. भोपाल के आयोजन की चर्चा राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय स्

गरीबों के लिए संजीवनी है आयुष्मान भारत

       उत्तम स्वास्थ्य मानव जीवन की सबसे प्रमुख जरूरतों में से एक है. किन्तु आज के दौर में व्यक्ति लगातार बीमारियों की गिरफ़्त में आता जा रहा है, तो दूसरी तरफ़ नई –नई बीमारियों का आने से खतरा और बढ़ जाता है. जिनके पास पैसा है, जिनकी आर्थिक स्थिति मजबूत है वह देश अथवा विदेश में जाकर इलाज करवा सकते हैं किन्तु गांव के अंतिम छोर पर खड़ा भयंकर बीमारी से पीड़ित व्यक्ति कहाँ जाएगा ? जाएगा भी तो इलाज में लगने वाली मोटी रकम कहाँ से लाएगा ? यह ऐसे सवाल हैं जिसके जवाब के लिए गांव –गरीब ,मजदूर तथा वंचित वर्ग सरकार की तरफ़ मुंह कर के वर्षों से जवाब चाहता था. स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ देश के हर व्यक्ति के मिले यह सरकार का दायित्व बनता है. लेकिन उसकी गुणवत्ता को परखने की बजाय केवल खानापूर्ति से दायित्वों से मुक्त होने का समय अब जा चुका है. सरकारी योजनाओं का लाभ लाभार्थियों तक पहुंचें इस दिशा में देश अब आगे बढ़ा है. जिसका सबसे प्रत्यक्ष उदारहण डीबीटी के माध्यम से सीधा लाभार्थी के खाते में जाना वाला धन हो अथवा उज्ज्वला योजना से गरीबों के घर में जलने वाले चूल्हे हो या फिर जनधन के माध्यम से वंचितों

संवाद से भ्रांतियों को दूर करता संघ !

जब तमाम प्रकार की बातें किसी सामाजिक संगठन को लेकर फैलाई जा रहीं हो, तब ऐसी स्थिति में यह जरूरी जो जाता है कि वह संगठन अपना पक्ष तथा अपना विचार देश के समक्ष रखे. आरएसएस जैसे सांस्कृतिक संगठन के लिए तो यह और जरूरी हो जाता है. क्योंकि आज़ादी के पश्चात् ही संघ को लेकर तमाम प्रकार की भ्रांतियों और मिथकों को बड़े स्तर पर प्रसारित करने का काम किया है.किन्तु संघ अटल होकर अपने पथ से डगमगाए बगैर राष्ट्र निर्माण के संकल्प के साथ निरंतर आगे बढ़ता गया और हर रोज़ अनूठे कार्यों से चर्चा भी हासिल करता जा रहा है. इसी क्रम में दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय स्वयं सवेक संघ ने तीन दिवसीय संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया. जिसमे संघ प्रमुख ने भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण पर तीनों दिन लगातार लगभग सभी चर्चित मुद्दों पर अपनी बात रखी तथा जो सवाल आए उसका जवाब भी दिया. इस आयोजन में हर विचारधारा से जुड़े लोगों को बुलाने की कोशिश संघ द्वारा की गई. ताकि संघ के विचार और दृष्टिकोण से सभी परिचित हो सकें. राजनीतिक दलों एवं देश के बड़े बौद्धिक वर्ग, कला, विज्ञान, संस्कृति एवं शिक्षा के क्षत्रों से जुड़े प्रभावी

अमित शाह भाजपा के लिए जरूरी क्यों हैं ?

  भारतीय जनता पार्टी की दो दिनों तक चली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कई ऐसी बातें सामने निकल कर आईं जो आगामी लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव के लिए काफी महत्वपूर्ण मानी जा रहीं हैं.गौरतलब है कि यह बैठक 18 और 19 अगस्त को प्रस्तावित थी, किन्तु अटल जी के निधन के पश्चात् इसे टाल दिया गया था. दिल्ली के अम्बेडकर इन्टरनेशनल सेंटर में आठ तथा नौ सितम्बर को भाजपा की इस कार्यकारिणी को 2019 के लोकसभा चुनाव की जरूरी बैठकों में से प्रमुख माना जा रहा हैं. क्योंकि इस बैठक में बीजेपी ने आगामी चुनाव की रणनीति, नेतृत्व और प्रमुख मुद्दों का ब्लूप्रिंट प्रस्तुत किया है. इस बैठक में भाजपा ने वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों और लोकसभा तथा तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को केंद्र में रखकर जमकर मंथन किया. इस मंथन का निचोड़ क्या निकला तथा आने वाले समय में इसका क्या असर होगा यह समझना जरूरी है. जाहिर है कि इस बैठक में भाजपा ने अपने राजनीतिक प्रस्ताव में ‘नए भारत’   के लक्ष्य को हासिल करने की बात 2022 तक की गई है. इस प्रस्ताव को गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने पेश किया. इस राजनीतिक प्रस्ताव में 2022

एनआरसी पर सियासत के मायने

एनआरसी का ड्राफ्ट आज संसद से सड़क तक चर्चा का केंद्रबिंदु बना हुआ है, सभी विपक्षी दल इस मुद्दे पर जनता को भ्रमित करने का प्रयास कर रहें है,वहीँ बीजेपी का स्पष्ट कहना है कि घुसपैठियों के मसले पर सभी दलों को अपना मत स्पष्ट करना चाहिए,देश की सुरक्षा के साथ भाजपा कोई समझौता नहीं करेगी, लेकिन इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि भाजपा को छोड़ कोई राजनीतिक दल एनआरसी की महत्ता को समझने की कोशिश नहीं कर रहा अपितु वह अपने राजनीतिक रणनीति के जोड़ –घटाव में लगा हुआ है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पहले राज्यसभा में जिस आक्रमकता के साथ एनआरसी पर राजीव गाँधी के हवाले से कांग्रेस को घेरा इससे कांग्रेस पूरी तरह बौखला गई. अमित शाह ने कांग्रेस की दोमुंही राजनीति को बेनकाब करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. कांग्रेस घुसपैठियों के मामले में खतरनाक राजनीति कर रही है.सदन के अंदर तथा इस मुद्दे पर प्रेस कान्फ्रेंस में अमित शाह ने बार –बार साहस और हिम्मत जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया.आखिर इन दो शब्दों के क्या मायने निकाले जाएँ ? दरअसल घुसपैठियों को कांग्रेस ,टीएमसी दल अपने वोटबैंक के नजरिये से देखते हैं ,इस मसौदे के

अविश्वास प्रस्ताव के सबक

    भारत के संसदीय इतिहास में विगत शुक्रवार का दिन कई मायने में ऐतिहासिक रहा. विपक्षी दलों द्वारा उस सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाने का दुस्साहस किया गया, जिसे भारत की जनता ने प्रचंड बहुमत से देश की कमान सौंपी है. एनडीए सरकार के खिलाफ़ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का हश्र क्या होगा इसको लेकर किसी के मन में कोई शंका नहीं रही होगी. वर्तमान में एनडीए को छोड़ भी दें, तो भी भाजपा अपने दम पर सत्ता में बनी रह सकती है अगर इसमें एनडीए को मिला दें तो संख्या बल 311 पर जाकर थमता है, जो बहुमत के जादूई आंकड़े 268 से कहीं ज्यादा है. देश राहुल गाँधी और नरेंद्र मोदी के भाषण की तासीर को समझने में लगा है किन्तु इन सबके बीच पहला सवाल यही खड़ा होता है की विपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव की जरूरत क्या थी? किस रणनीति को साधने के लिए कांग्रेस ने टीडीएस के कंधो पर बंदूख रखा? दरअसल,आम चुनाव जैसे–जैसे करीब आ रहा है विश्वास की कसौटी पर रसातल में पहुँच चुकी कांग्रेस झूठ, फ़रेब और अफ़वाह फैलाने के एक भी हथकंडे को छोड़ना नहीं चाहती. अप्रसांगिकता के दौर से गुजर रहे राहुल गाँधी चर्चा में बने रहने के लिए अलग–अलग रणनीत

अखिलेश का अशोभनीय कृत्य

     हमारे देश के राजनेताओं को सत्ता का रसूख इतना भाता है कि वह अपने सियासी आडंबर से जरा भी समझौता करना पसंद नहीं करते. यही कारण है कि सरकारी बंगला,सुरक्षा,गाड़ी का   लब्बोलुआब उन्हें अपने गिरफ़्त में ले लेता है. राजनीति में जो मर्यादा, शुचिता एवं सहजता की स्थिति थी, अब वह बीते दिनों की बात हो चुकी है. वर्तमान में देश के राजनेताओ को सुख-सुविधा एवं वीआईपी संस्कृति ने अपने गिरफ़्त में ले रखा है. यह सर्वविदित सत्य है की सत्ता से बाहर होने के बाद सरकारी सुविधाओं को त्यागना पड़ता है अथवा उसमें भारी कटौती भी देखने को मिलती है. सरकारी सुविधाओ के प्रोटोकॉल की एक प्रक्रिया है, जिसमें राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री सहित पूर्व प्रधानमंत्री तथा पूर्व राष्ट्रपति, मंत्री ,मुख्यमंत्री सांसद एवं विधायक गण आते हैं. इस समय उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों का सरकारी बंगला छोड़ना चर्चा के केंद्र बिंदु में है. सबसे बड़े सूबे में पूर्व मुख्यमंत्रियों को कोर्ट ने झटका देते हुए वर्षों से कब्ज़ा जमाए सरकारी बंगले को छोड़ने का आदेश दिया था. यह आदेश उत्तर प्रदेश के प्रमुख छत्रपों पर कहर की तरह था. देश ने देखा उत्

हिंसा की राजनीति पर लगाम जरूरी

भारत जैसे विविधताओं और महान लोकतांत्रिक देश में जब राजनीतिक हत्याओं के मामले सामने आते हैं तो निश्चित तौर पर, वह लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रहे होते हैं.राजनीतिक हत्या न केवल भारत के विचार –विनिमय   की संस्कृति को चोट पहुंचाते हैं बल्कि, यह सोचने पर मज़बूर करते हैं कि राजनीति में अब सियासी भाईचारे की जगह बची है अथवा नहीं ? रक्तरंजित राजनीति के लिए दो राज्य हमेशा चर्चा के केंद्र बिंदु में रहते हैं.पहला पश्चिम बंगाल और दूसरा केरल इन दोनों में वामपंथी शासन के दौरान राजनीतिक हिंसा को खूब फलने फूलने दिया गया और इसका इस्तेमाल अपनी सियासी ताकत की आजमाइश और तुष्टीकरण के लिए किया जाने लगा. उसी का परिणाम है कि आज रक्तरंजित राजनीति की घटनाएँ लगातार बढ़ रहीं तथा अपने स्वरूप को और भी क्रूरता   के साथ पेश करने से नहीं हिचक रहीं. बंगाल की सियासत में राजनीतिक हिंसा कोई नहीं बात नहीं है किन्तु जब वामपंथी शासन से बंगाल को मुक्ति मिली थी, तब ऐसा अनुमान लगाया गया था कि ममता बनर्जी के आने से यह कुप्रथा समाप्त होगी अथवा कमी आएगी लेकिन, इस अनुमान के साथ बड़ा छलावा हुआ ममता बनर्जी के शासनकाल में जिस तरह से हिंसा

कर्नाटक में स्थायी सरकार जरूरी

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम सबके सामने है.किसी भी दल को वहाँ की जनता ने स्पष्ट जनादेश नहीं दिया .लेकिन, बीजेपी लगभग बहुमत के आकड़े चुमते –चुमते रह गई और सबसे बड़े दल के रूप में ही भाजपा को संतोष करना पड़ा है. कौन मुख्यमंत्री पद की शपथ लेगा ? इस खंडित जनादेश के मायने क्या है ? क्या कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस को खारिज़ कर दिया ? ऐसे बहुतेरे सवाल इस खंडित जनादेश के आईने में खड़े हो थे. सरकार बनाने के लिए तमाम प्रकार की जद्दोजहद कांग्रेस और जेडीएस ने किया किन्तु कर्नाटक की जनता ने बीजेपी को जनादेश दिया था इसलिए राज्यपाल ने संविधान सम्मत निर्णय लेते हुए बी.एस यदुरप्पा को सरकार बनाने का न्यौता भेजा. राज्यपाल के निर्णय से बौखलाई कांग्रेस आधी रात को सुप्रीम कोर्ट की शरण में गई लेकिन, उसे वहां भी मुंह की खानी पड़ी. खैर,बृहस्पतिवार की सुबह यदुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.राज्यपाल के निर्देशानुसार पन्द्रह दिन के भीतर उन्हें  विधानसभा में बहुमत साबित करना होगा,फिलहाल अगर कर्नाटक की राजनीति को समझें तो बीजेपी के लिए यह बहुत कठिन नहीं होगा.क्योंकि जेडीएस और कांग्रेस के बीच हुए इस अनैतिक गठबन्

महाभियोग पर कांग्रेस का महाप्रलाप

सात विपक्षी दलों द्वारा मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ़ दिए गए महाभियोग नोटिस को उपराष्ट्रपति ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि मुख्य न्यायधीश के ऊपर लगाए गए आरोप निराधार और कल्पना पर आधारित है. उपराष्ट्रपति की यह तल्ख़ टिप्पणी यह बताने के लिए काफ़ी है कि कांग्रेस ने  किस तरह से अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए महाभियोग जैसे अति गंभीर विषय पर अगम्भीरता दिखाई है. महाभियोग को अस्वीकार करने की 22 वजहें उपराष्ट्रपति ने बताई हैं. दस पेज के इस फ़ैसले में उपराष्ट्रपति ने कुछ महत्वपूर्ण तर्क भी दिए हैं. पहला, सभी पांचो आरोपों पर गौर करने के बाद ये पाया गया कि यह सुप्रीम कोर्ट का अंदरूनी मामला है ऐसे में महाभियोग के लिए यह आरोप स्वीकार नहीं किये जायेंगे. दूसरा, रोस्टर बंटवारा भी मुख्य न्यायधीश का अधिकार है और वह मास्टर ऑफ़ रोस्टर होते हैं. इस तरह के आरोपों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचती है. तीसरा, इस तरह के प्रस्ताव के लिए एक संसदीय परंपरा है. राज्यसभा के सदस्यों की हैंडबुक के पैराग्राफ 2.2 में इसका उल्लेख है, जिसके तहत इस तरह के नोटिस को पब्लिक करने की अनुमति नहीं है,