Skip to main content

संसद की प्रतिष्ठा को धूमिल करते सियासतदान



संसद  के शीतकालीन सत्र समाप्त होने में चंद दिन शेष बचे हैं और यह पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ता दिखाई दे रहा है. नोटबंदी को लेकर विपक्षी दल लोकतंत्र के मंदिर मे जो अराजकता का माहौल बनाए हुए हैं वह शर्मनाक है. गौरतलब है कि नोटबंदी एक ऐसा फैसला है जिसका प्रभाव देश के हर व्यक्ति पर पड़ा है और आमजनता कतार में खड़ी है. उसे तमाम प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. नोटबंदी के फैसले के बाद आमजनता के जहन में भी कई सवाल खड़े हुए हैं जिसके जवाब के लिए वह संसद की तरफ देख रही है. किन्तु हमारे द्वारा चुनकर भेजे गये प्रतिनिधि इन सवालों के जवाब तथा इस समस्या का हल निकालने की बजाय अपनी राजनीतिक शक्ति और झूठी प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ने में मशगूल हैं. ऐसे कठिन समय में और इतने गंभीर मुद्दे पर भी हमारे सियासतदान अपनी ओछी राजनीति से बाज़ नहीं आ रहे हैं. नोटबंदी के बाद जनता में अफरातफरी का जो महौल बना है उससे जनता को कैसे निकाला जाए, कैश को लेकर जो समस्याएँ आमजनता के समक्ष आ रही हैं, उस समस्या से निजात जनता को कैसे मिले? इसपर बात करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल अपने अनुसार राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं. टकराव की ऐसी स्थिति बनी है कि समस्याओं को लेकर जो व्यापक बहस दिखनी चाहिए वो महज हुल्लड़बाजी तक सिमित होकर रह गई है. सदन को ठप्प हुए दो सप्ताह से अधिक समय बीत चुका है तथा सत्र भी अब समाप्त होने वाला है, लेकिन संसद में कामकाज न के बराबर हुआ है. इस गतिरोध को देखते हुए वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सत्ता पक्ष तथा विपक्ष दोनों पक्षों पर नाराजगी जताई है. यही नहीं आडवाणी ने संसदीय कार्यमंत्री व लोकसभाध्यक्ष को भी कठघरे में खड़ा किया है. आडवाणी का यह कहना वाजिब ही है कि सदन में हल्ला मचाने वाले सांसदों को सदन से बाहर कर उनके वेतन में कटौती की जानी चाहिए. आडवाणी की फटकार के अगले ही दिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी सांसदों से अपील की कि संसद में गतिरोध समाप्त कर काम शुरू किया जाए. लेकिन महामहिम के अपील का भी कोई असर हमारे माननीयों पर होता हुआ नहीं दिख रहा है. इस व्यर्थ के हंगामे को देखकर लगता है कि विपक्ष यह तय कर बैठा है कि हम संसद में काम नहीं होने देगें, वहीं सत्तापक्ष भी अपनी शर्तों पर सदन चलाने पर अड़ा हुआ है. बहरहाल, संसद बहस का मंच हैं जहाँ जनता से जुड़े मुद्दों पर हमारे द्वारा चुनकर भेजे गये प्रतिनिधि सकारात्मक चर्चा करते हैं. लेकिन अब हमारी संसद से सकारात्मकता विलुप्त होती चली जा रही है, हर मुद्दे पर बहस की जगह हंगामे ने ले लिया है. विपक्षी दलों को लगता है कि विरोध करने का सबसे सही तरीका यही है कि संसद के कार्यवाही को रोक दिया जाये, विपक्ष को इस तरीके को बदलना होगा. उसे आमजनता से जुड़ी समस्याओं को लेकर विरोध करने का हक है, उसे समस्याओं को लेकर सरकार को घेरने का अधिकार है किन्तु सदन की कार्यवाही को रोकना किसी भी स्थिति में सही नहीं है. नोटबंदी का फैसला जैसे ही सामने आया विपक्ष के रुख को देखकर ही अंदाज़ा हो गया था कि संसद तो चलने से रही और हुआ भी यही. सत्र शुरू होने के साथ ही विपक्ष ने नोटबंदी पर चर्चा की मांग की, सरकार ने विपक्ष की इस मांग को स्वीकार करते हुए विमुद्रीकरण पर चर्चा को राजी हो गई थी. किन्तु विपक्ष हर रोज़ नई शर्तों के साथ चर्चा चाहता है. पहले विपक्ष ने कहा प्रधानमंत्री की उपस्थिति होना जरूरी है, उसके बाद मतदान के नियमानुसार चर्चा की जिद पकड़ कर बैठ गया. सत्ता पक्ष ने विपक्ष की इस मांग को खारिज कर दिया. जिससे दोनों पक्ष अपनी –अपनी जिद पर अड़े हुए हैं.सरकार के सामने चुनौती होती है कि वह किसी भी तरह संसद को चलाने में सफल रहे. वहीँ विपक्ष का मिजाज़ होता है कि वे मुद्दे जिनका जनता से सीधा सरोकार हो और यदि सरकार जनता की उस परेशानी पर ध्यान नहीं दे रही हो तो विपक्ष सरकार को उन मुद्दों के सहारे घेरता है तथा संसद में व्यापक विचार–विमर्श की मांग करता है. किन्तु अब हमारे संसद प्रणाली में स्वस्थ बहस की गुंजाइश नहीं बची है. संसद अखाड़ा बन चुका है बहस की भाषा तीखी हो गई है, सवाल तो यह भी है स्वस्थ बहस चाहता कौन है ? यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि विपक्ष भी बहस के नियम और उसके स्वरूप को लेकर संशय में है. विमुद्रीकरण के फैसले के बाद संसद में जो अराजकता का माहौल बना हुआ है आखिर उसका जिम्मेदार कौन है ? जाहिर है कि विमुद्रीकरण के बाद से आम जनता को परेशानी हुई है. संसद से लेकर सड़क तक चल रहे गैरवाजिब हंगामे को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि विपक्ष की आम जनता की परेशानीयों को दूर करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. बल्कि विपक्ष इसपर अपना राजनीतिक नफा–नुकसान ढूंढने में लगा हुआ है, राजनीतिक लाभ के लिए संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाना कतई उचित नहीं है. देश हित के लिए जरूरी है सत्तापक्ष तथा विपक्ष दोनों मिलकर संसद में एक सार्थक चर्चा करें जिससे समस्याओं का हल ढूंढा जा सकें.

Comments

Popular posts from this blog

काश यादें भी भूकंप के मलबे. में दब जातीं ..

    एक दिन बैठा था अपनी तन्हाइयों के साथ खुद से बातें कर रहा था. चारों तरफ शोर –शराबा था, लोग भूकम्प की बातें करते हुए निकल रहें थे साथ ही सभी अपने–अपने तरीके से इससे  हुए नुकसान का आंकलन भी कर रहें थे.  मै चुप बैठा सभी को सुन रहा था. फिर अचानक उसकी यादों ने दस्तक दी और आँखे भर आयीं. आख  से निकले हुए अश्क मेरे गालों को चूमते  हुए मिट्टी में घुल–मिल जा रहें थे मानों ये आसूं उन ओश की बूंदों की तरह हो जो किसी पत्ते को चूमते हुए मिट्टी को गलें लगाकर अपना आस्तित्व मिटा देती हैं. उसी  प्रकार मेरे आंशु भी मिट्टी में अपने वजूद को खत्म कर रहें थे. दरअसल उसकी याद अक्सर मुझे हँसा भी जाती है और रुला भी जाती है. दिल में एक ऐसा भाव जगा जाती है जिससे मै खुद ही अपने बस में नहीं रह पाता, पूरी तरह बेचैन हो उठता. जैसे उनदिनों जब वो  मुझसे मिलने आती तो अक्सर लेट हो जाती,मेरे फोन का भी जबाब नहीं देती, ठीक इसी प्रकार की बेचैनी मेरे अंदर उमड़ जाती थी. परन्तु तब के बेचैनी और अब के बेचैनी में  एक बड़ा फर्क है, तब देर से ही सही  आतें ही उसके होंठों से पहला शब्द स...

डिजिटल इंडिया को लेकर सरकार गंभीर

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी महत्वकांक्षी योजना डिजिटल इंडिया को साकार करने के लिए सिलिकाँन वैली में तकनीक क्षेत्र की सभी दिग्गज कंपनियों के प्रमुखों से मुलाकात की . प्रधानमंत्री मोदी ने डिजिटल इंडिया के उद्दश्यों व लक्ष्यों के बारें इन सभी को बताया.तकनीक जगत सभी शीर्षस्थ कंपनियां मसलन गूगल,माइक्रोसॉफ्ट तथा एप्पल के सीईओ ने भारत सरकार की इस योजना का स्वागत करते हुए, भारत में निवेश को लेकर अपने –अपने प्लानों के दुनिया के सामने रखतें हुए भारत को भविष्य की महाशक्ति बताया है. इन सभी कंपनियों को बखूबी मालूम है कि भारत आज सभी क्षेत्रों  नए- नए आयाम गढ़ रहा है. इसको ध्यान में रखतें हुए गूगल के सीईओ सुंदर पिचई ने भारत के 500 रेलवे स्टेशनों को वाई -फाई से लैस करवाने के साथ 8 भारतीय भाषाओं में इंटरनेट की सुविधा देने की घोषणा की तो वहीँ माइक्रोसॉफ्ट ने भी भारत में जल्द ही पांच लाख गावों को कम लागत में ब्रोडबैंड तकनीकी पहुँचाने की बात कही है.इस प्रकार सभी कंपनियों के सीईओ ने भारत को डिजिटल बनाने के लिए हर संभव मदद के साथ इस अभियान के लिए प्रधानमंत्री मोदी से कंधा से कंधा ...

लोकतंत्र पर बड़ा आघात था आपातकाल

  लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून की तारीख याद रखनी चाहिए. क्योंकि यह वह दिन है जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया था. आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है , जिसके दाग से कांग्रेस कभी मुक्त नहीं हो सकती. इंदिरा गांधी ने समूचे देश को जेल खाने में तब्दील कर दिया था. लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया जा रहा था, सरकारी तंत्र पूरी तरह राजा के इशारे पर काम कर रहा था. जब राजा शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो स्वभाविक है कि इंदिरा गांधी पूरी तरह लोकतंत्र को राजतंत्र के चाबुक से ही संचालित कर रही थीं. गौरतलब है कि इंदिरा गांधी किसी भी तरीके से सत्ता में बने रहना चाहती थी. इसके लिए वह कोई कीमत अदा करने को तैयार थी किन्तु इसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर इतना बड़ा आघात होने वाला है शायद इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी.   देश में इंदिरा गाँधी की नीतियों के खिलाफ भारी जनाक्रोश था और जयप्रकाश नारायण जनता की आवाज बन चुके थे. जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ रहा था इंदिरा सरकार के उपर खतरे के बादल मंडराने लगे थे. हर रोज हो रहे प्रदर्...