Skip to main content

हिंसा की राजनीति पर लगाम जरूरी



भारत जैसे विविधताओं और महान लोकतांत्रिक देश में जब राजनीतिक हत्याओं के मामले सामने आते हैं तो निश्चित तौर पर, वह लोकतंत्र को मुंह चिढ़ा रहे होते हैं.राजनीतिक हत्या न केवल भारत के विचार –विनिमय  की संस्कृति को चोट पहुंचाते हैं बल्कि, यह सोचने पर मज़बूर करते हैं कि राजनीति में अब सियासी भाईचारे की जगह बची है अथवा नहीं ? रक्तरंजित राजनीति के लिए दो राज्य हमेशा चर्चा के केंद्र बिंदु में रहते हैं.पहला पश्चिम बंगाल और दूसरा केरल इन दोनों में वामपंथी शासन के दौरान राजनीतिक हिंसा को खूब फलने फूलने दिया गया और इसका इस्तेमाल अपनी सियासी ताकत की आजमाइश और तुष्टीकरण के लिए किया जाने लगा. उसी का परिणाम है कि आज रक्तरंजित राजनीति की घटनाएँ लगातार बढ़ रहीं तथा अपने स्वरूप को और भी क्रूरता  के साथ पेश करने से नहीं हिचक रहीं. बंगाल की सियासत में राजनीतिक हिंसा कोई नहीं बात नहीं है किन्तु जब वामपंथी शासन से बंगाल को मुक्ति मिली थी, तब ऐसा अनुमान लगाया गया था कि ममता बनर्जी के आने से यह कुप्रथा समाप्त होगी अथवा कमी आएगी लेकिन, इस अनुमान के साथ बड़ा छलावा हुआ ममता बनर्जी के शासनकाल में जिस तरह से हिंसा आराजकता और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का हनन हो रहा है, वह किसी भी सूरतेहाल में लोकतंत्र के लिए घातक है. बंगाल में भाजपा की बढ़ते जन समर्थन से बौखलाई ममता तानाशाही के रास्ते पर हैं और अपने विरोधी  विचारों के लोगों पर हर प्रकार के जुल्म करने से परहेज़ नहीं कर रहीं है. बंगाल के पंचायत चुनाव में लोकतंत्र की कैसे धज्जियां ममता सरकार ने उड़ाई यह पूरे देश ने देखा. राजनीति में विरोध जायज है, राजनीतिक दल आरोप –प्रत्यारोप के जरिये विपक्षी दल को पराजित करने की रणनीति अपनाते है, जो लोकतांत्रिक मर्यादा के अनुकूल भी है. किन्तु अब बंगाल में स्थिति किनती भयावह है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस के गुंडों ने  सारी हदों को पार करते हुए भाजपा के एक दलित युवा कार्यकर्ता जिसने अपने जीवन के मात्र अठारह बसंत ही देखे थे. उसकी क्रूरता की सारी सीमाओं को लांघते हुए हत्या कर दिया. त्रिलोचन महतो का मात्र एक कसूर था कि वह भाजपा का कार्यकर्ता था तथा तृणमूल के विचारों का विरोधी था.ऐसा पहली बार नहीं है कि बंगाल में भाजपा के किसी कार्यकर्ता की हत्या राजनीतिक विरोधी होने के नाते सत्ता का आश्रय पाए गुंडों ने की हो लेकिन, इस हत्या में हत्यारों ने जो निर्ममता दिखाई है, वह बंगाल में जनतंत्र की डरावनी तस्वीर को प्रदर्शित करता है. इस दलित युवा की न केवल निर्मम हत्या की गई बल्कि उसके शव को पेड़ में लटका दिया गया  और उसके टीशर्ट और इस जगह पर एक नोट भी बरामद हुआ है, जिसपर लिखा है की “ 18 साल की उम्र बीजेपी के लिए काम करोगे तो यही हश्र होगा” यह नफ़रत से भरी हुई राजनीति का वह रक्तरंजित चेहरा है जिसका श्रृंगार ममता बनर्जी के संरक्षण में हो रहा है. गौरतलब है कि हालही में संपन्न हुए पंचायत चुनाव में ममता के अलोकतांत्रिक और सरकारी शक्ति के दुरुपयोग के बावजूद भाजपा की जन स्वीकरोक्ति पहले की अपेक्षा बढ़ी है. त्रिलोचन इस पंचायत चुनाव में सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया था. जिससे वह तृणमूल के गुंडों के निशाने पर था. इस हत्या का सबसे प्रमुख कारण बलरामपुर में बीजेपी की हुई जीत को बताया जा रहा है.बहरहाल, बंगाल में जो राजनीतिक स्थिति बन रही है उससे यह कहना गलत नहीं होगा कि ममता एक अहंकारी एवं तानाशाही किस्म की मुख्यमंत्री है .जो कभी संघवाद को चुनौती दे देती तो ,लोकतंत्र को अंगूठा दिखाने से भी परहेज़ नहीं कर रहीं हैं. दलित युवक त्रिलोचन महतों की राजनीतिक हत्या पर ममता सरकार के साथ –साथ दलित हितैषी का स्वांग रचाने वाले झंडाबरदारों की चुप्पी कई गंभीर सवाल खड़े करती है. आज देश के राजनीतिक माहौल में आज कथित दलित नेताओं की बाढ़ सी आ गई. जो दलित हितैषी तथा सामाजिक न्याय के नाम लोगों को गुमराह करके किसी भी तरह से दलित समाज को हिंसा के आन्दोलन में धकेलना चाहते हैं. योजनाबद्ध ढंग से दलितों को बरगलाया जा रहा है किन्तु त्रिलोचन महतों की हत्या पर उनकी खमोशी यह साबित करती है कि यह कबीला केवल एक विचारधारा के विरोध के लिए खड़ा है, उन्हें दलितों के सम्मान,भलाई से कोई वास्ता नहीं है बल्कि वह दलितों का इस्तेमाल अपनी राजनीति को साधने के लिए कर रहें हैं. इस राजनीतिक हत्या पर सवाल उठने लाजिमी हैं.आखिर क्या कारण है कि इस बर्बरता पर दलित चिंतक मौन हैं ? यह उचित है कि देश के किसी भी कोने में अगर किसी दलित का उत्पीड़न होता है तो, यह दलित चिंतक वर्ग उस मामले में न्याय दिलाने की बड़ी –बड़ी बातें करता है किन्तु बंगाल, केरल में दलितों के साथ हो रहे अन्याय एवं हिंसा पर यह झुंड आँखें मूंद लेता है.बंगाल में जो स्थिति है उसके मद्देनज़र वहाँ शासन व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाना, लचर कानून व्यस्था को दुरुस्त करना और इस तरह की घटनाओं पर कड़ी प्रतिक्रिया देना राज्य के मुखिया का दायित्व होता है.लेकिन, ममता ऐसे संवेदनशील मामलों पर भी मौन रहती हैं अथवा कोई ऐसा बयान दे देती जिससे आरोपियों को ही संबल मिलता है. त्रिलोचन महतो की हत्या को किसी सामान्य हत्या के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार की हत्याएं सरकार एवं सियासत दोनों के लिए लज्जाजनक हैं.

Comments

Popular posts from this blog

भारत माता की जय के नारे लगाना गर्व की बात

      भारत माता की जय के नारे लगाना गर्व की बात -:   अपने घृणित बयानों से सुर्खियों में रहने वाले हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी इनदिनों फिर से चर्चा में हैं.बहुसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए ओवैसी बंधु आए दिन घटिया बयान देते रहतें है.लेकिन इस बार तो ओवैसी ने सारी हदें पार कर दी.दरअसल एक सभा को संबोधित करते हुए ओवैसी ने कहा कि हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा की भारत माता की जय बोलना जरूरी है,चाहें तो मेरे गले पर चाकू लगा दीजिये,पर मै भारत माता की जय नही बोलूँगा.ऐसे शर्मनाक बयानों की जितनी निंदा की जाए कम है .इसप्रकार के बयानों से ने केवल देश की एकता व अखंडता को चोट पहुँचती है बल्कि देश की आज़ादी के लिए अपने होंठों पर भारत माँ की जय बोलते हुए शहीद हुए उन सभी शूरवीरों का भी अपमान है,भारत माता की जय कहना अपने आप में गर्व की बात है.इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि अपने सियासी हितो की पूर्ति के लिए इस हद तक गिर जाएँ कि देशभक्ति की परिभाषा अपने अनुसार तय करने लगें.इस पुरे मसले पर गौर करें तो कुछ दिनों पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भाग

लोककल्याण के लिए संकल्पित जननायक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना 70 वां जन्मदिन मना रहे हैं . समाज जीवन में उनकी यात्रा बेहद लंबी और समृद्ध है . इस यात्रा कि महत्वपूर्ण कड़ी यह है कि नरेंद्र मोदी ने लोगों के विश्वास को जीता है और लोकप्रियता के मानकों को भी तोड़ा है . एक गरीब पृष्ठभूमि से निकलकर सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने की उनकी यह यात्रा हमारे लोकतंत्र और संविधान की शक्ति को तो इंगित करता ही है , इसके साथ में यह भी बताता है कि अगर हम कठिन परिश्रम और अपने दायित्व के प्रति समर्पित हो जाएँ तो कोई भी लक्ष्य कठिन नहीं है . 2001 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बनते हैं , यहीं से वह संगठन से शासन की तरफ बढ़ते है और यह कहना अतिशयोक्ति   नहीं होगी कि आज वह एक अपराजेय योध्हा बन चुके हैं . चाहें उनके नेतृत्व में गुजरात विधानसभा चुनाव की बात हो अथवा 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव की बात हो सियासत में नरेंद्र मोदी के आगे विपक्षी दलों ने घुटने टेक दिए है . 2014 के आम चुनाव को कौन भूल सकता है . जब एक ही व्यक्ति के चेहरे पर जनता से लेकर मुद्दे तक टिक से गए थे . सबने नरेंद्र मोदी में ही आशा , विश्वास और उम्मीद की नई किरण देखी और इतिहास

लंबित मुकदमों का निस्तारण जरूरी

     देश के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर बेटे विगत रविवार को मुख्यमंत्रियों एवं उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीशों के सम्मलेन को संबोधित करते हुए भावुक हो गये.दरअसल अदालतों पर बढ़ते काम के बोझ और जजों की घटती संख्या की बात करतें हुए उनका गला भर आया.चीफ जस्टिस ने अपने संबोधन में पुरे तथ्य के साथ देश की अदालतों व न्याय तंत्र की चरमराते हालात से सबको अवगत कराया.भारतीय न्याय व्यवस्था की रफ्तार कितनी धीमी है.ये बात किसी से छिपी नहीं है,आये दिन हम देखतें है कि मुकदमों के फैसले आने में साल ही नहीं अपितु दशक लग जाते हैं.ये हमारी न्याय व्यवस्था का स्याह सच है,जिससे मुंह नही मोड़ा जा सकता.देश के सभी अदालतों में बढ़ते मुकदमों और घटते जजों की संख्या से इस भयावह स्थिति का जन्म हुआ है.गौरतलब है कि 1987 में लॉ कमीशन ने प्रति 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 50 करनें की अनुशंसा की थी लेकिन आज 29 साल बाद भी हमारे हुक्मरानों ने लॉ कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की जहमत नही उठाई.ये हक़ीकत है कि पिछले दो दशकों से अदालतों के बढ़ते कामों पर किसी ने गौर नही किया.जजों के कामों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई.केसो