हमारे देश के
राजनेताओं को सत्ता का रसूख इतना भाता है कि वह अपने सियासी आडंबर से जरा भी
समझौता करना पसंद नहीं करते. यही कारण है कि सरकारी बंगला,सुरक्षा,गाड़ी का लब्बोलुआब उन्हें अपने गिरफ़्त में ले लेता है.
राजनीति में जो मर्यादा, शुचिता एवं सहजता की स्थिति थी, अब वह बीते दिनों की बात
हो चुकी है. वर्तमान में देश के राजनेताओ को सुख-सुविधा एवं वीआईपी संस्कृति ने
अपने गिरफ़्त में ले रखा है. यह सर्वविदित सत्य है की सत्ता से बाहर होने के बाद
सरकारी सुविधाओं को त्यागना पड़ता है अथवा उसमें भारी कटौती भी देखने को मिलती है.
सरकारी सुविधाओ के प्रोटोकॉल की एक प्रक्रिया है, जिसमें राष्ट्रपति एवं
प्रधानमंत्री सहित पूर्व प्रधानमंत्री तथा पूर्व राष्ट्रपति, मंत्री ,मुख्यमंत्री
सांसद एवं विधायक गण आते हैं. इस समय उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों का
सरकारी बंगला छोड़ना चर्चा के केंद्र बिंदु में है. सबसे बड़े सूबे में पूर्व
मुख्यमंत्रियों को कोर्ट ने झटका देते हुए वर्षों से कब्ज़ा जमाए सरकारी बंगले को
छोड़ने का आदेश दिया था. यह आदेश उत्तर प्रदेश के प्रमुख छत्रपों पर कहर की तरह था.
देश ने देखा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव एवं बसपा सुप्रीमों
मायावती ने सरकारी बंगले नहीं छोड़ना पड़े, इसके लिए कई किस्म में हथकंडे अपनाएं उसमें
न केवल विफल साबित हुए. बल्कि हास्य के पात्र भी बने. इसके साथ –साथ दो पूर्व
मुख्यमंत्रियों की मर्यादाहीनता को भी समूचे देश ने देखा. सरकारी बंगला हाथ से न
फ़िसले ,कोर्ट के फ़ैसले को कैसे ठेंगा
दिखाया जाए. इसके हर संभव प्रयास किये गये, लेकिन सारे प्रयास निरर्थक साबित हुए.
अंत में अखिलेश ,मायावती और मुलायम सिंह ने किसी तरह से सरकारी बंगले का मोह छोड़ा.
राजनाथ सिंह एवं कल्याण सिंह ने कोर्ट के फ़ैसले के अनुसार बिना किसी बहानेबाजी के
तय मियाद से पहले ही बंगले की चाभी राज्य संपत्ति विभाग को सौंप दी थी. एनडी
तिवारी अस्वस्थ होने के कारण बंगला नहीं खाली कर पाए हैं.बहरहाल, कैसे –कैसे यह
बंगला खाली हुआ यह तो राज्य सम्पत्ति विभाग के अधिकारी ही जानते हैं लेकिन, ऐसा माना जा रहा था कि बंगला खाली करने के बाद बवाल
थम जाएगा. किन्तु बड़ा बवंडर तो अब खड़ा हुआ है.जब अखिलेश ने अपने बंगले को तहस –नहस
करवा के अपने संस्कार को दिखा दिया. हैरान करने वाली बात है यह कि टाइल्स, पंखे ,
पौधे, टोटी और मार्बल सबको छिन्न –भिन्न कर दिया गया था. यहाँ तक कि हरा भरा बगीचा
पूरी तरह से बर्बाद कर दिया था. स्विमिंग पूल को पाट दिया गया था. जिस तरह से
सरकारी संपत्ति को इरादतन नुकसान पहुँचाया गया है. इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि
सरकारी बंगला जाने का जो गुस्सा था, अखिलेश यादव ने सरकारी बंगले पर उतार दिया है.
एक पूर्व मुख्यमंत्री की यह कारस्तानियाँ आने वाले दिनों में लोग उदाहरण के रूप
में प्रस्तुत करें तो हैरत नहीं .गौरतलब है कि अपने निवास से अलग होना किसी के लिए
भी एक भावुक क्षण होता है. उसे गुस्से में परिवर्तित करना कहाँ तक जायज है ? वह भी,
जब व्यक्ति सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में सक्रिय हो, तब इस तरह के दोयम दर्जे का
काम उसकी मानसिकता को उजागर करता है. अखिलेश ने इस पूरे मसले पर कई दफ़ा मीडिया के
सामने अपनी बात रखी. वह खुद अपने बयानों में घिर रहें है. कभी उनका वक्तव्य आता है
कि जो नुकसान हुआ है. उसकी भरपाई कर देंगे तो, कभी इसे राजनीतिक साजिश बताते हैं. लेकिन
इससे राजनीति की मर्यादा का जो क्षरण हुआ है, उसकी भरपाई कौन करेगा ? सौ बार ऐसे
हुआ है जब लगता है की लोहिया के विचारों
की दुहाई देने वाले मुलायम ब्रांड समाजवादी लोहिया के विचारों का अनुसरण तो दूर की
कौड़ी है, एक आम नैतिक मूल्यों का भी पालन नहीं करते. क्योंकि किसी के अंदर एक
मानवीय भावना यह होती है कि जब कोई किसी निवास स्थान को छोड़ता है तो, उसे साफ़
सुथरा एवं व्यवस्थित ढंग से छोड़ता है लेकिन, सबसे बड़े राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री
,एक राजनीतिक दल का अध्यक्ष होते हुए अखिलेश यादव ने जो ओछी हरकत की है यह एक बेहद
अशोभनीय एवं शर्मनाक है. राज्य संपत्ति विभाग की माने तो अखिलेश यादव के सरकारी बंगले
में 42 करोड़ की मोटी धनराशि खर्च हुई है.यह किसका पैसा था, जिसे गुस्से की भेंट
चढ़ा दिया गया. उस पैसे से बने घर को उजार दिया गया. इस कृत्य से न केवल समाजवादी
पार्टी के छवि को नुकसान पहुंचा है बल्कि अखिलेश की साख में जो बट्टा लगा है. उसकी
भरपाई करना समाजवादियों के लिए दुष्कर कार्य होगा. इस पूरे मामले में अखिलेश यादव
बेवजह राजनीति करके खुद अपनी और फजीहत कराने में लगे हुए हैं. अच्छा होगा की इस
तरह के कृत्य लिए अखिलेश विनम्रता के साथ माफ़ी मांगे.
एक दिन बैठा था अपनी तन्हाइयों के साथ खुद से बातें कर रहा था. चारों तरफ शोर –शराबा था, लोग भूकम्प की बातें करते हुए निकल रहें थे साथ ही सभी अपने–अपने तरीके से इससे हुए नुकसान का आंकलन भी कर रहें थे. मै चुप बैठा सभी को सुन रहा था. फिर अचानक उसकी यादों ने दस्तक दी और आँखे भर आयीं. आख से निकले हुए अश्क मेरे गालों को चूमते हुए मिट्टी में घुल–मिल जा रहें थे मानों ये आसूं उन ओश की बूंदों की तरह हो जो किसी पत्ते को चूमते हुए मिट्टी को गलें लगाकर अपना आस्तित्व मिटा देती हैं. उसी प्रकार मेरे आंशु भी मिट्टी में अपने वजूद को खत्म कर रहें थे. दरअसल उसकी याद अक्सर मुझे हँसा भी जाती है और रुला भी जाती है. दिल में एक ऐसा भाव जगा जाती है जिससे मै खुद ही अपने बस में नहीं रह पाता, पूरी तरह बेचैन हो उठता. जैसे उनदिनों जब वो मुझसे मिलने आती तो अक्सर लेट हो जाती,मेरे फोन का भी जबाब नहीं देती, ठीक इसी प्रकार की बेचैनी मेरे अंदर उमड़ जाती थी. परन्तु तब के बेचैनी और अब के बेचैनी में एक बड़ा फर्क है, तब देर से ही सही आतें ही उसके होंठों से पहला शब्द स...
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