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छात्रसंघ चुनाव : गैर जरूरी मुद्दों का बढ़ता वर्चस्व



दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव में इसबार भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को भव्य विजय प्राप्त हुई है। इस चुनाव में चार पदों में से तीन पदों पर एबीवीपी ने विजय प्राप्त की है। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव का पद परिषद के खाते में गया, तो कांग्रेस से जुड़े छात्र संगठन एनएसयूआई को महज एक सचिव पद से ही संतोष करना पड़ा। दिल्ली विश्वविद्यालय में इस बार चुनाव से पहले आबोहवा बदली हुई थी। परिषद राष्ट्रवाद और विश्वविद्यालय के मुद्दों को लेकर छात्रों के बीच पहुंचा तो एनएसययूआई ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सावरकर की आलोचना इत्यादि गैर वाजिब मुद्दों को ज्यादा तरजीह दी। लिहाजा छात्रों ने उसे पूरी तरह से नकार दिया।

इस चुनाव से पहले एक बड़े मामले का जिक्र करना समीचीन होगा जिससे चुनाव की दिशा बदल गई और परिषद की लोकप्रियता का स्तर और भी बढ़ा। गौरतलब है कि चुनाव के कुछ दिन पूर्व ही विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस में सावरकर की मूर्ति को लेकर बड़ा विवाद खड़ा करने की कोशिश लेफ्ट और कांग्रेस से जुड़े छात्र संगठनों ने की थी।

दरअसल, दिल्ली छात्र संघ के नेता शक्ति सिंह ने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल के अंतिम दिनों में परिसर में भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस और सावरकर की मूर्ति स्थापित करवाई थी। जाहिर तौर पर ये वह नाम हैं जो आज के युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं, लेकिन वामपंथी (कांग्रेस पोषित) इतिहासकारों ने सावरकर को लेकर एक मिथक गढ़ा, जिसे स्थापित करने का भरसक प्रयास करती रही है, हालांकि इन प्रयासों में उसे कभी सफलता नहीं मिली।

सो कांग्रेस से ही प्रेरणा लेते हुए उसकी छात्र इकाई एनएसय़ूआई के दिल्ली राज्य के अध्यक्ष अक्षय लखारा नें अपने साथियों के साथ वीर सावरकर की प्रतिमा पर कालिख पोती तथा जूते की माला पहनाकर उन्हें अपनानित करने का कार्य किया। इस घटना के उपरांत युवा छात्रों में एनएसयूआई में प्रति एक रोष पैदा हुआ जो चुनाव परिणामों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। एबीवीपी के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी अक्षित दाहिया ने एनएसयूआई के प्रत्याशी चेतना त्यागी को 19,039 मतों के भारी अंतर से शिकस्त दी।
छात्र संघ चुनाव में परिषद को मिली यह विजय ऐतिहासिक है। क्योंकि अक्षित अभी महज़ बीस साल के हैं, इनकी गिनती विश्वविद्यालय के सबसे युवा अध्यक्ष के तौर पर हो रही है, वहीं यह भी तथ्य सामने रहे हैं कि 19 हजार से अधिक मतों की यह भव्य विजय अभूतपूर्व है। इससे पहले डूसू में किसी भी पद के लिए इतने मतों से किसी प्रत्याशी को विजय नहीं मिली है।

बहरहाल, इन सबके उपरांत इस बार के छात्र संघ चुनाव को देखें तो यह चुनाव छात्र राजनीति में रही नीरसता की तरफ इंगित करता है।  क्योंकि इसबार यह चुनाव में कौन जीता कौन हारा, छात्र संघ चुनाव के मुद्दे क्या रहे इसको लेकर आम जन तो दूर की कौड़ी हैं युवाओं ने भी बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाई। छात्रसंघ चुनावों में फिलहाल अब वह जोश नहीं दिखता जो 1970 से 2000 के बीच दिखता था। छात्र राजनीति देश की राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखती थी. यह कहना गलत नहीं होगा कि समयानुसार छात्र राजनीति धीरेधीरे सिकुड़ती गई और प्रभावहीन भी होती चली जा रही है। छात्र राजनीति से अब राष्ट्रीय स्तर की राजनीति तक पहुंचना बेहद कठिन हो गया है। इसके कारणों को देखें तो युवा छात्र नेताओं में राजनीति में निरंतरता और निष्ठा का आभाव है।

छात्र राजनीति के अनुशासन पर अनुशासनहीनता नें अतिक्रमण का। जिन विषयों पर युवा छात्रों से कोई विशेष संबंध नहीं है, आज जानबूझकर ऐसे नेरेटिव खड़े किए जा रहे हैं जिससे मूल मुद्दे गौण हो जाते हैं और अनर्गल मुद्दों को तवज्जो मिलने लगती है। अमर्यादित होती छात्र राजनीति का सबसे जीवंत उदाहरण कभी जेएनयू तो कभी जाधवपुर विश्वविद्यालय में उठने वाले देश विरोधी नारे हैं।  छात्र राजनीति के इस अवसान पर गंभीरता से विचार करना होगा तथा छात्रों को अपने मूलभूत सुविधाओं और सामाजिक आंदोलनों की तरफ लौटना होगा। छात्र राजनीति का स्वर्णिम युग अगर कहना हो तब हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि 1970 से 1985 का कालखंड छात्र राजनीति का एक स्वर्णिम काल रहा है और इसके नायक जय प्रकाश नारायण थे, आपातकाल के दौरान जेपी की एक छतरी के निचे विभिन्न छात्र संगठनों को एकजुट होकर आपातकाल के विरुद्ध जमकर लड़े और अपने उद्देश्य में सफ़ल हुए।  उस समय के छात्र नेताओं ने बहुत कम समय में ही राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बना लिया और बड़ा मुकाम हासिल किया। ऐसे में गंभीर सवाल यही है कि आज छात्र संघ की प्रासंगिकता क्या है ? अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव संपन्न हुए हैं।  इनके परिणामों को लेकर जो अनुमान लगाया गया था अथवा यूँ कहें तो इन दोनों विश्वविद्यालयों की वैचारिक बुनियाद ही परिणामों की तरफ इशारा कर देते हैं, लेकिन डीयू में सावरकर की प्रतिमा के विरोध एवं एनएसयूआई एवं वामपंथी कार्यकर्ताओं द्वारा मूर्ति से की गई अभद्रता के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की विजय ऐसी ओछी हरकतों को अंजाम देने वालों को कड़ा संदेश है। विद्यार्थी परिषद का नारा है ज्ञान, शील, एकता, परिषद की विशेषतादिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने परिषद की विशेषता पर मुहर लगाई है और कांग्रेस को एक कड़ा संदेश भी दिया है कि कांग्रेस सावरकर या उनके जैसे अन्य देशभक्तों को लेकर अपने पूर्वाग्रहों और दुष्प्रचारों पर लगाम लगाए, क्योंकि आज का युवा वीर सावरकर के त्याग, बलिदान, राष्ट्रप्रेम को अपनी प्रेरणा मानता है। उनको अपमानित करने वाले इसके परिणाम से नहीं बच सकते। डूसू चुनाव में एनएसयूआई की करारी हार ने एकबार और इस बात को प्रमाणित किया है।


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