Skip to main content

मेनका गाँधी का पुत्र मोह


Comments

Popular posts from this blog

काश यादें भी भूकंप के मलबे. में दब जातीं ..

    एक दिन बैठा था अपनी तन्हाइयों के साथ खुद से बातें कर रहा था. चारों तरफ शोर –शराबा था, लोग भूकम्प की बातें करते हुए निकल रहें थे साथ ही सभी अपने–अपने तरीके से इससे  हुए नुकसान का आंकलन भी कर रहें थे.  मै चुप बैठा सभी को सुन रहा था. फिर अचानक उसकी यादों ने दस्तक दी और आँखे भर आयीं. आख  से निकले हुए अश्क मेरे गालों को चूमते  हुए मिट्टी में घुल–मिल जा रहें थे मानों ये आसूं उन ओश की बूंदों की तरह हो जो किसी पत्ते को चूमते हुए मिट्टी को गलें लगाकर अपना आस्तित्व मिटा देती हैं. उसी  प्रकार मेरे आंशु भी मिट्टी में अपने वजूद को खत्म कर रहें थे. दरअसल उसकी याद अक्सर मुझे हँसा भी जाती है और रुला भी जाती है. दिल में एक ऐसा भाव जगा जाती है जिससे मै खुद ही अपने बस में नहीं रह पाता, पूरी तरह बेचैन हो उठता. जैसे उनदिनों जब वो  मुझसे मिलने आती तो अक्सर लेट हो जाती,मेरे फोन का भी जबाब नहीं देती, ठीक इसी प्रकार की बेचैनी मेरे अंदर उमड़ जाती थी. परन्तु तब के बेचैनी और अब के बेचैनी में  एक बड़ा फर्क है, तब देर से ही सही  आतें ही उसके होंठों से पहला शब्द स...

लोकतंत्र पर बड़ा आघात था आपातकाल

  लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को 25 जून की तारीख याद रखनी चाहिए. क्योंकि यह वह दिन है जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बंदी बना लिया गया था. आपातकाल स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है , जिसके दाग से कांग्रेस कभी मुक्त नहीं हो सकती. इंदिरा गांधी ने समूचे देश को जेल खाने में तब्दील कर दिया था. लोकतंत्र के लिए उठाने वाली हर आवाज को निर्ममता से कुचल दिया जा रहा था, सरकारी तंत्र पूरी तरह राजा के इशारे पर काम कर रहा था. जब राजा शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ तो स्वभाविक है कि इंदिरा गांधी पूरी तरह लोकतंत्र को राजतंत्र के चाबुक से ही संचालित कर रही थीं. गौरतलब है कि इंदिरा गांधी किसी भी तरीके से सत्ता में बने रहना चाहती थी. इसके लिए वह कोई कीमत अदा करने को तैयार थी किन्तु इसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर इतना बड़ा आघात होने वाला है शायद इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी.   देश में इंदिरा गाँधी की नीतियों के खिलाफ भारी जनाक्रोश था और जयप्रकाश नारायण जनता की आवाज बन चुके थे. जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ रहा था इंदिरा सरकार के उपर खतरे के बादल मंडराने लगे थे. हर रोज हो रहे प्रदर्...

विजय का डरावना तांडव

  पश्चिम बंगाल चुनाव परिणाम के बाद जो दृश्य देश के सामने आ रहे हैं वह हैरान करने वाले हैं. इस तरह की अराजकता, हिंसा और लोकतंत्र का उपहास शायद ही कभी देखने को मिला हो. पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि पश्चिम बंगाल से रोंगटे खड़ी कर देनी वाली खबरें आएँगी. ममता का चुनाव में विजयी होना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है, जनादेश का सम्मान किया जाना चाहिए, किन्तु इसमें मुझे संशय नहीं है कि पश्चिम बंगाल में आने वाले दिनों में लोकतंत्र   बलतंत्र में परिवर्तित हो जाएगा, आराजकता को अधिक बल मिलेगा, कटमनी मुख्य व्यापार होगा और तुष्टीकरण की सभी सीमाओं को लांघ दिया जाएगा. ममता संघीय ढांचे में विश्वास नहीं रखती हैं वह पहले ही विभाजन की बात कह चुकी हैं और अलग राजधानी की मांग कर चुकी हैं. नीति आयोग की बैठकों को छोड़ना उनके लिए आम बात है, कोरोना संकट में राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री की बैठकों में भी वह हिस्सा लेने से बचती आई हैं. सेना के रूटीन मार्च को वह तख्तापलट का संज्ञा दे चुकी हैं, भ्रष्टाचार के मामले में पुलिस कमिशनर के घर पड़े छापे के वि...