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लोकतंत्र के लिए चुनौती बनतीं ममता

 


 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में चार चरण के मतदान हो चुके हैं, पांचवें चरण का मतदान होने वाला है, लेकिन इस बीच कई ऐसी घटनाएँ सामने आईं हैं जो लोकतांत्रिक मूल्यों को चोट पहुंचाने के साथ तृणमूल कांग्रेस की हताशा को भी प्रदर्शित करती हैं. हिंसा लोकतंत्र में जायज नहीं है हम इस लाइन को दोहराते आए हैं. दुर्भाग्य से पश्चिम बंगाल में कोई चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से नहीं होता है. यह क्रूर सत्य तो है ही इसके साथ हमारी लोकतंत्र की विफलता में से एक भद्दा उदाहरण भी है. बंगाल की राजनीतिक तासीर ऐसी रही है हम ऐसी बचकानी बातें करके अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं. सवाल, चुनाव आयोग कि तैयारियों  को लेकर भी उठ रहे हैं कि आखिर शांतिपूर्ण मतदान के उनके दावे  हवाहवाई क्यों नजर आ रहे हैं. बहरहाल, राजनीतिक हिंसा के साथ-साथ आज कई ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिसका बिन्दुवार विश्लेषण करने के उपरांत हम ऐसे परिणाम तक पहुँचाने का प्रयास करेंगे, जो सत्य के करीब हो.  पश्चिम बंगाल में चुनाव के समय हिंसा मतदाताओं को वोट डालने से रोकती है हमें इसके एक बारीकी पक्ष को समझना पड़ेगा दरअसल, यह हिंसा वोटिंग रोकने के लिए ही होती है, किन्तु विरोध में पड़ने वाले मतदाताओं को रोकने के लिए होती है अथवा उनपर मानसिक दबाव बनाने के लिए होती है कि अमुख पार्टी अथवा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान न करें अथवा आपको इस घनघोर प्रताड़ना का शिकार होना पड़ेगा. सच में यह हमें कई बालीवुड फिल्मों की याद दिला रहा है, जो बाहुबली गुंडा चुनाव लड़ रहा होता है और उसके गुर्गे पोलिंग बुथो पर लोकतंत्र  को कब्जे में लेकर जीत का जश्न मानते हैं एवं प्रशासन तमाशाबीन बने रहता है. तृणमूल कांग्रेस का चुनाव आयोग पर एक के बाद एक की जा रही टिप्पणी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को भी तार-तार करने का काम कर रही है.  2016 के बाद तृणमूल कांग्रेस द्वारा स्वायत्त संस्थाओं पर हमला एवं राजनीतिक हिंसा की उसकी प्रवृत्ति में बहुत तेज़ी आई है. वास्तव में लोकतांत्रिक आदर्शों को चोटिल करने के खिलाफ़ सभी राजनीतिक दलों के साथ  खड़े होना चाहिए था. इसके साथ ही खुद को बौद्धिक वर्ग कहने वाले लोगों को भी आगे आकर एक सुर में बंगाल में हो रहे लोकतंत्र के प्रतिकूल आचरणों की भर्त्सना करनी चाहिए थी, लेकिन वैचारिक खूंटे से बंधी मानसिकता के कारण ऐसा नहीं हुआ और तृणमूल कांग्रेस के हौसले बुलंद होते चले आए. राजनीतिक हिंसा का सामना करके सत्ता तक पहुंची ममता बैनर्जी बंगाल में लगी हिंसा की आग में और घी डालने का काम किया.  वैचारिक असहिष्णुता जेरे बहस में रही है, लेकिन दृष्टिकोण में इतना बड़ा फर्क कभी नजर नहीं आया कि एक राजनीतिक दल के 130 से अधिक कार्यकर्ताओं को एक राज्य में  वैचारिक असहमति के कारण मौत के घाट उतार दिया गया हो.  लोकतंत्र में पंचायत का चुनाव हो,  विधानसभा का अथवा लोकसभा का हो इसे हम लोकतांत्रिक पर्व के रूप में मनाते हैं.  इस पर्व को सबसे ज्यादा वीभत्स करने का काम तृणमूल कांग्रेस ने किया है.  हमें पश्चिम बंगाल के 2018 के पंचायत चुनाव से इसको समझना होगा. इस पंचायत चुनाव में हिंसा को लेकर बंगाल अचानक फिर से चर्चा में आया और किसी को अंदाज़ा नहीं होगा कि पंचायत स्तर के चुनाव में सत्ताधारी दल इस तरह लोकतंत्र का मखौल उड़ाते हुए हिंसा व भय फैलाने  के सहारे जनतंत्र को रौंदने का काम करेगी. आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में पंचायत की 58,692 में से 20,076 सीटों पर बिना चुनाव हुए ही विजेता घोषित कर दिया गया था. राज्य चुनाव आयोग ने अपने आंकड़ो में यह स्वीकार किया था कि 34 फीसदी से ज्यादा सीटों पर उम्मीदवारों को निर्विरोध चुना जा चुका है. तृणमूल के आंतक से प्रत्याशी नामांकन करने का भी साहस नहीं जुटा पाए थे. जगह-जगह राजनीतिक हिंसा हुई राजनीतिक कार्यकर्ता सहित आम लोग भी मारे गए थे, उस समय भारतीय जनता पार्टी ने दावा किया था कि हमारे 20 से अधिक कार्यकर्ताओं की हत्या की गई और 1341 कार्यकर्ता जख्मी हुए थे .  यहाँ एक  क्रूर घटना की जिक्र करना आवश्यक है. त्रिलोचन महतो नाम के दलित युवा भाजपा कार्यकर्ता को इसी पंचायत चुनाव के समय मार के लटका दिया गया था. हत्या कि जगह पर एक नोट मिला था कि ‘भाजपा के लिए काम करोगे तो यही हश्र होगा’. यह नफरत से भरी हुई राजनीति का वह चेहरा है जो बंगाल में आज भी बदस्तूर जारी है.  2019 के लोकसभा चुनाव में भी ऐसे ही भयावह दृश्य देखने को मिले थे. पश्चिम बंगाल में हिंसा के साथ भय के सहारे मतदाताओं को तृणमूल के पक्ष में मतदान करने का प्रयास हुआ, जहाँ एकमुश्त वोट किसी अन्य दल को जा रहे थे, तृणमूल कांग्रेस ने वहाँ मतदान रोकने की कोशिश की, ऐसी खबरें उस समय राज्य के हर हिस्से से आ रही थीं. उदाहरण के लिए सातगछिया और रायगंज लोकसभा क्षेत्र में हिन्दूओं को वोट डालने से रोका गया था. इसमें भी तृणमूल कांग्रेस के नेता का नाम सामने आया था. अब चल रहे  विधानसभा चुनाव की स्थिति पर नजर डालें तो आज भी हिंसा के खबरे हर चरण में आ रही हैं. क्या बंगाल में शांतिपूर्ण चुनाव कराने में चुनाव आयोग विफल रहा है ? इन उल्लेखित घटनाओं के आधार पर हम क्यों न माने कि ममता बैनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है. दरअसल  चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल में शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए विशेष प्रयास करते आया है. गत लोकसभा चुनाव में केन्द्रीय सुरक्षा बलों की संख्या को बढ़ाने का निर्णय हो अथवा समय से पहले चुनाव प्रचार खत्म करने का, इसके बावजूद आयोग को पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई.  राज्य के अधिकारियों का असहयोगात्मक रवैये के साथ प्रशासन का राजनीतिकरण इसकी बड़ी वजह मानी जा सकती है. 2019 के चुनाव में ममता शुरू से  हिंसा और अराजकता पर चुनिन्दा चुप्पी का सहारा लेती आई हैं,  दूसरी तरफ ममता बैनर्जी चुनाव आयोग पर निरंतर हमला जारी रखा है. कई बार ममता ने चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को भंग करने का प्रयास किया. उन्होंने एकबार भी राज्य की कानून-व्यवस्था की स्थिति पर कुछ नहीं बोला, राज्य में हो रही हिंसात्मक घटनाओं पर अपनी पार्टी की भूमिका को लेकर भी ममता मौन रही हैं. इस चुनाव में तो ममता ने सभी मर्यादाओं को पार करते हुए  नया कीर्तिमान स्थापित किया है.  उन्होंने अल्पसंख्यक समाज के लोगों को एकजुट होकर तृणमूल के पक्ष में वोट डालने की अपील की है. मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी केन्द्रीय सुरक्षा बलों को एक राजनीतिक दल के साथ शुरू से जोड़ती आई हैं. यहाँ तक की अब वो इनको ‘घेरने ‘ की बात करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप आयोग ने उनपर 24 घंटे का बैन लगा दिया. हताश मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग पर हमला जारी रखते हुए नाटकीय अंदाज़ में धरने पर बैठ गईं. तृणमूल ने आयोग के इस फैसले को लोकतंत्र के लिए काला दिन बता दिया, लेकिन क्या यह अच्छा नहीं होता कि ममता इस तरह के बयानों से बचती ? क्या यह सहीं नहीं होता कि वह सुरक्षा बलों को राजनीति से अलग रखती. आयोग द्वारा इस तरह की कार्यवाही के अनेकों उदाहरण देखने को मिल जाएंगे. मसलन 2019 के चुनाव में चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, बसपा सुप्रीमों मायावती सहित कई नेताओं के आपत्तिजनक बयान पर उन्हें नोटिश भेजा, उनके प्रचार पर रोक लगाई थी. फ़िलहाल बंगाल में ही भाजपा के पश्चिम बंगाल प्रदेश अध्यक्ष को चुनाव आयोग ने नोटिश दिया है, भाजपा नेता राहुल सिन्हा के प्रचार पर रोक लगाई है. यहाँ तो आयोग बार-बार ममता बैनर्जी को नोटिश देता आया था पर ममता ने मर्यादाओं को ताक पर रख कर राजनीतिक दलों की तरह ही केन्द्रीय सुरक्षा बलों, चुनाव आयोग को भी अपना प्रतिद्वंद्वी मान बैठी हैं . भारत जैसे लोकतांत्रिक एवं संघीय ढांचे  वाले देश में एक मुख्यमंत्री का इस तरह लोकतंत्र एवं स्वायत संस्थाओं के लिए चुनौती बनाना निश्चित रूप से चिंताजनक है.

 


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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