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दीनदयाल उपाध्याय की आर्थिक नीतियों को अंगीकृत करने का समय

 

चाइनीज़ कोरोना वायरस से फैली महामारी से दुनिया की सभी व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं. सभी देश इसके प्रकोप से उबरने के लिए तमाम तरह के प्रयास कर रहे हैं. कोरोना की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था की नींव भी दरक गई है. हम देख रहे हैं कि अपने देश के ज्यादातर छोटे-बड़े उद्योग, कारखाने बंद हैं, मजदूर अपने गांवो की तरफ पलायन कर रहे हैं. वो किसी तरह अपने घर पहुंचना चाहते हैं क्योंकि उनके पास इस संकट की घड़ी में जीवनयापन करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है. उन्हें भोजन, रहने और स्वास्थ्य के साथ आजीविका को चलाने का संकट उन्हें बेचैन किए हुए है. लॉकडाउन का तीसरा चरण चल रहा है सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की अर्थव्यवस्था को गति देने की है. यह होगा कैसे ? ये यक्ष प्रश्न हमारे सामने खड़ा है. कई अर्थशास्त्री विभिन्न प्रकार के सुझाव भी दे रहे हैं, लेकिन उनके सुझाव आज की परिस्थिति के अनुकूल हैं अथवा भारतीय दृष्टिकोण से उनके सुझाव को अपनाना लाभदायक होगा भी या नहीं, यह भी एक बड़ा सवाल है. देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से गति देने के लिए तमाम तरह मॉडल आज चर्चा में हैं. यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह किस आर्थिक मॉडल के साथ अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में दिलचस्पी दिखाती है. प्रधानमंत्री खुद ग्राम स्वावलंबन की बात सरपंचो से बातचीत के दौरान कह चुके हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने भी स्वदेशी आर्थिक मॉडल का सुझाव दिया है. अब चर्चा इन्हीं दो बिंदुओं के इर्दगिर्द ज्यादा हो रही है. ये दोनों संभव तभी होगा जब व्यवस्था ज्यादा से ज्यादा विकेन्द्रीकरण होगा. आर्थिक विकेंद्रीकरण का जिक्र होते मानसपटल पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम आना स्वाभविक है क्योंकि आज़ादी के बाद से ही दीनदयाल बार-बार अपने लेखों एवं उद्बोधनों से गांव को मजबूत करने के साथ आर्थिक केन्द्रीकरण के नुकसान को लेकर नेहरु सरकार को चेताते रहे. जब जनसंघ की स्थापना हुई उसके उपरांत उन्होंने जनसंघ की अर्थ नीतियों में स्वदेशी, स्वावलंबन, भूमि व्यवस्था में परिवर्तन, आम जन को स्वावलंबी बनाने के लिए कुटीर उद्योग, श्रम का अधिकार, सयंमित उपभोग और कृषि का उत्पादन इत्यादि विषयों को शामिल किया था. यह सब नीतियाँ तत्कालीन परिस्थितियों के अनुकूल और देश के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए कारीगर थे. यदि उसवक्त वैचारिक मतभेदों के कारण तत्कालीन  सरकार ने इन आवश्यक सुझावों एवं विचारों से आँखें नहीं मुंदी होती तो स्थिति आज  दूसरी होती. बहरहाल, अब नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐसी कई नीतियों का अमल में लाया है, जो गांवो को मजबूत करने की दिशा में सफलतापूर्वक कार्य कर रही हैं. मसलन ई मंडी हो, अन्नदाता को उर्जादाता बनाने की अभिनव पहल हो, गांवो को डिजिटल बनाना हो अथवा जनधन, उज्ज्वला इत्यादि तमाम योजनाओं के जरिये गांवो को मजबूत करना हो. इसके अलावा गांवों में रोजगार के अवसर को बढ़ाने के लिए सरकार ने खादी, पशुपालन और बांस कि खेती को भी बढ़ावा दिया है. इन सब बातों को बताने का अभिप्राय यह है कि इस सरकार ने गांवो में रोजगार मूलक योजनाओं की आवश्कता को समझा है. परन्तु कोरोना नामक आई तबाही के कारण अब स्थिति सामान्य नहीं रही. भारी संख्या में श्रमिक अपने गाँव की तरफ लौट चुके हैं, लौट रहे हैं. उद्योगधंधे ठप्प पड़े हैं. ऐसी विकट परिस्थिति में हमें भारतीय प्राचीन परम्परा और भारतीय चिंतन की दृष्टी की तरफ भी देखना होगा. साठ के दशक में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने हमारे अर्थतंत्र को मजबूत करने के लिए जो विचार दिए वह आज के परिपेक्ष्य पूरी तरह प्रासंगिक नजर आ रहे हैं. सुखद है कि आज सत्ता में दीनदयाल उपाध्याय के वैचारिक नीवं पर खड़ी पार्टी सत्ता में है. यह सर्वविदित है कि भाजपा दीनदयाल द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानववाद और अन्त्योदय को अपना वैचारिक दर्शन मानती है. इस लिहाज़ से उम्मीद और भी गहरी हो जाती है कि अब सरकार उस दिशा की तरफ कदम बढ़ाएगी, जिस तरफ आज़ादी के बाद पंडित दीनदयाल ने इशारा किया था. दीनदयाल ने राजनीतिक, सांस्कृतिक के साथ उनका आर्थिक दर्शन भारतीयता के मूल से निकला हुआ दर्शन है, किन्तु वैचारिक मदभेदों के कारण देश में लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेसनीत सरकारों ने उन विचारों की उपेक्षा की, जिसका दुष्परिणाम हमें बढ़ते पूंजीवाद, व्यवस्थाओं के केन्द्रीकरण, आयात पर निर्भरता, असंतुलित औद्योगीकरण के रूप में देख सकते हैं. दीनदयाल जी विकेन्द्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे. उनका मनाना था कि हमारे अर्थव्यवस्था का आधार हमारे गांव और जनपद होने चाहिए. हमें आत्मनिर्भर होना चाहिए. अपनी पुस्तक भारतीय अर्थ नीति विकास की एक दिशा में दीनदयाल लिखते हैं कियह भी आवश्यक है कि हम आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनें. यदि हमारे कार्यक्रमों की पूर्ति विदेशी सहायता पर निर्भर रही तो वह अवश्य ही हमारे उपर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से बंधनकारक होगी. हम सहायता देने वाले देशों के आर्थिक प्रभाव में आ जायेंगे. अपनी आर्थिक योजनाओं की सफलपूर्ति में संभव बाधाओं को बचाने की दृष्टि से हमें अनेक स्थानों पर मौन रहना पड़ेगा”. इसके आगे दीनदयाल बहुत गंभीर बात कहते हैं. “जो राष्ट्र दूसरों पर निर्भर रहने की आदत डाल लेता है, उसका स्वाभिमान नष्ट हो जाता है. ऐसा स्वाभिमानशून्य राष्ट्र कभी अपनी स्वतन्त्रता की कीमत नहीं आंक सकता है”. भारत गाँव और किसानों का देश है. यहाँ गांव और किसान अगर समृद्ध हुए तो देश की प्रगति हर दिशा में संभव है. दीनदयाल गाँवों को प्रभावित करने वाली आर्थिक नीति को भारत को उजाड़ने वाली नीति बताते थे. वे मानते थे कि उत्पादक वस्तुएं बड़े उद्योग तैयार करें एवं उपभोग की वस्तुएं छोटे उद्योग द्वारा तैयार की जाएँ. आज ग्राम स्वावलम्बन के दृष्टि से कई प्रमुख कारक नज़र आ रहे हैं, जिसमें व्यवसाय आधारित कृषि. दीनदयाल ने खाद्य और व्यावसायिक कृषि में संतुलन की बात कही है. मजदूरों के होते पलायन और सामने खड़ी आर्थिक चुनौतियों के बीच यदि दीनदयाल जीवित होते तो यकीनन वह स्वदेशी के मूल मंत्र और गांवो को आत्मनिर्भर बनाने की अपनी नीति के सहारे एक सामर्थ्य भारत की नई नीवं रखते. आज कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना हमारे लिए सबसे उपयोगी साबित हो सकता है. इसकी महत्ता को समझते हुए 25 जनवरी 1954 में पांचजन्य के लिए लिखे अपने विस्तृत लेख में दीनदयाल जी ने लिखा कि औधोगिक क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने, जनता को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने तथा सम्पत्ति के सम विभाजन की व्यवस्था करने के लिए हमें कुटीर उद्योगों को पुन: विकसित करना पड़ेगा. प्राचीन भारत में सम्पूर्ण आर्थिक ढांचा इन कुटीर उद्योगों पर ही खड़ा था. उस समय न केवल देश स्वावलंबी था वरन लघुतम इकाई ग्राम तक स्वावलंबी थे. आर्थिक स्वाधीनता के लिए हमें इस रीढ़ को पुनः खड़ा करना होगा. दीनदयाल जी केवल कुटीर उद्योगों को पुरानी पद्धति से शुरू करने की बात नहीं करते थे बल्कि आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को आगे बढ़ाने की बात करते थे. इस बात से भी इनकार  नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में मज़दूरों कि घर वापसी व पूंजी के आभाव में कई बड़े उद्योग बन्द हो जाएं इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमें पुनः जड़ो को मजबूत करना होगा अर्थात हमें हमें गांव और किसान को मजबूत करना होगा. यही समय है जब आयात पर निर्भरता छोड़कर स्वदेशी निर्यात के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ें. हमें कुटीर, लघु व सूक्ष्म उद्योग को विकसित करने के लिए एक ठोस नीति का निर्धारण करना चाहिए. छोटे-छोटे कस्बों में कैसे आइसक्रीम, डेयरी, मसाला, कागज़, आचार, नमकीन, बेकरी का निर्माण बड़े स्तर पर शुरू हो, किसान कैसे व्यवसायिक फसल, पशुपालन, दुग्ध उत्पादन, सोयाबीन, गन्ना, दलहन के माध्यम से आत्मनिर्भर हो इस पर भी विचार करना चाहिए. इस बात का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए कि किसान द्वारा तैयार व्यावसायिक फसल बाज़ार तक कैसे पहुंचे. हमें बाजार के इस चक्रव्यूह को भी तोड़ना चाहिए. उदाहरण के लिए प्लास्टिक व कागज़ के प्लेट आज हर मांगलिक कार्यक्रम में इस्तेमाल होता है. छोटे-छोटे कस्बों  में अगर यह उद्योग शुरू होता है तो इसके अनेक फायदे हैं, जैसे कि उद्योग भी वहीं होगा, बाजार भी वहीं होगा व्यापारी को बिना कोई माल भाड़ा दिए समय पर उसकी मांग की आपूर्ति हो जाएगी. इसके एकल मशीन के शुरू होने से पांच से दस लोगों को रोजगार मिलेगा. अत: इस समय हमें छोटे एवं बड़े उद्योगों के बीच एक संतुलन के साथ नई व्यवस्था को शुरू करना चाहिए. मजदूरों का पलायन, किसानों कि बदतर स्थिति, रोजगार की बंद होती सम्भावनाओं को देखकर हम खुद समझें कि जो बात दीनदयाल जी ने उस वक्त कही थी वह सत्य के कितने करीब थी. हमारे पास फिर एक अवसर आया है जब हम आत्मनिर्भरता के साथ नई व्यवस्था को विकसित कर सकते हैं. अत: हमें दीनदयाल उपाध्याय के आर्थिक नीतियों को आत्मसात करते हुए उसे अमल में लाने की दरकार है और यही वक्त की मांग भी है.


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